Sunday, February 23, 2014

"दिल हर हाल लग जाता है"

कभी जवाब चुभन देते हैं, तो कभी सवाल लग जाता है
कभी किसी का खामोश रहना ही कमाल लग जाता है।

दिल के बन जाने में लग जाती है उम्र यूँ तो
और बिखरता है आईने सा , जब कोई ख्याल लग जाता है।

जब भी तेरी यादें देती हैँ दिल के वीरानों पे दस्तक
इस तन्हाईओं के शहर में भी बवाल लग जाता है।

इतना शोर है दिल-ए-शहर में ,और फुर्सत है नहीं इसे
फिर क्यों खालीपन का इसे ही मलाल लग जाता है।

इक बार लगादे खुद को तू, उसी की राह पे "रोहित "
फिर कैसी भी हो दुनिया , दिल हर हाल में लग जाता है ।।

Saturday, February 15, 2014

आखरी सफ़र

जानें किस शहर की किस गली में आखरी सफ़र होगा ?
कौन आगे , कौन पीछे ,कौन हमसफ़र होगा ?

लड़ लड़ के कटी है ख्वाहिशों से ज़िन्दगी अपनी 
इस के आगे का तो अब सुकून से बसर होगा 

कोई रूठा हो तो रूठ के जाने ना दो दोस्तों 
वो चल दिया तो फिर मनाना बे-असर होगा 

जलती दिखी जो चिता मेरी पल दो पल ज़यादा और 
समझना के चाहने वालों की दुआओं का असर होगा 

सफ़र ऐसा हो "रोहित" के सफ़र चलता रहे, राही बदल जाएँ 
नहीं तो तेरा आखरी सफ़र, आखरी ही सफ़र होगा

Tuesday, October 29, 2013

हमसफ़र

मेरा सफ़र ही मेरी मंज़िल थी
तू हमसफ़र जो हुआ , तो सब मिल गया मुझे

तुझे पाने की खातिर ही बिखरता रहूँगा हर जनम
अब बता और क्या दुआ दूं तुझे 

Sunday, January 20, 2013

Manzil

मज़िल और कारवां

मै अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल
लोग जुड़ते गए और कारवां बनता गया
 

Tuesday, January 17, 2012

"ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ?"

तन्हाई नहीं है तो फिर उदासी क्यों है ?
आंसूओं में रही है ज़िन्दगी, फिर भी प्यासी क्यों है ?
जानता हूँ के वो बेवफा थी,ठुकरा कर चली गयी !
फिर भी उसके आने की आस ज़रा सी क्यों है ?
मै करता रहा तू जो कहती रही और खुद ज़िद पे है !!
ज़िन्दगी - तू आखिर इस तरह सी क्यों है ?
कोई दीवार भी नहीं,सर पे खुला आसमां है !
फिर यह घुटन ज़रा ज़रा सी क्यों है ?
मै जब भी चला तू मेरा साया बना, ए - गम !
"रोहित" पर ही तेरी निगाह सी क्यों है ?
सब को गले लगा कर मुझे भूल गयी, ए - तकदीर !
यह बता, तू इतनी बे - परवाह सी क्यों है ?
ज़िन्दगी -तू आखिर इस तरह सी क्यों है ?

Tuesday, October 4, 2011

"ज़िन्दगी भी इक कलम है"

तू खुदा है, तुझे सुना है लेकिन देखा नहीं,
मै तो इंसान हूँ, क्या तुझे दिखता हूँ मै ?
यह कैसी ख्वाहिशें भर ली हैं सीने में मैंने,
जिन्हें पाने की खातिर रोज़ यहाँ बिकता हूँ मै !
सिखाया तो था तुने मुझे उठने का सलीका,
फिर यह कैसे सिले हैं, के खुद की नज़रों से ही गिरता हूँ मै !
वो ठहराव, यह रास्ता, वो मंजिल -यह क्या है ?
आना ही है तेरी महफ़िल में,तो यहाँ क्यों रुकता हूँ मै !
थोड़ी है के ज्यादा है,जितनी भी है बाकी,
आखरी दम तक तेरे लिए ही "रोहित" लिखता हूँ मै !
ज़िन्दगी इक कलम है और सिरे पे मौत भी है,
हर्फ़ से लफ्ज़ बन गया हूँ, अब देखिये किस रोज़ मिटता हूँ मै !!

Saturday, September 24, 2011

'कुछ दोस्त"

कुछ ऐसे दोस्त थे हम दोस्त, जो सपने जोड़ा करते थे
मासूमीअत की आघोष में,कई कायदे तोडा करते थे

तब छोटी आशाएं थी अपनी, तब छोटे ख्वाब थे अपने
पल पल जो संग बिताये थे, वो यादें जोड़ा करते थे

अजब से खेल थे अपने,बड़े खिलाडी होते थे
रेत के घरोंदे बनाते थे,पानी से तोड़ा करते थे

नन्हे हाथ पाँव थे,लेकिन ज़रा होंसला तो देखो
नदिया किनारे बैठ हम,पानी का रुख मोड़ा करते थे
कुछ ऐसे दोस्त थे हम दोस्त,जो सपने जोड़ा करते थे

अब कुछ ऐसे दोस्त हैं,जो सपने तोड़ा करते हैं
अपनों के सपने तोड़ कर,अपने घर जोड़ा करते हैं
हर बात में झूठ होता है, हर बार फरेब करते हैं
हर रोज़ वो वायदे करते है,हर रोज़ वो तोड़ा करते हैं
वो मेरे कतल की साजिश में है, हम वैसे ही उनपे मरते हैं
ऐसे लोगों की यारी से,"रोहित" हम तो डरते हैं।