Tuesday, October 4, 2011

"ज़िन्दगी भी इक कलम है"

तू खुदा है, तुझे सुना है लेकिन देखा नहीं,
मै तो इंसान हूँ, क्या तुझे दिखता हूँ मै ?
यह कैसी ख्वाहिशें भर ली हैं सीने में मैंने,
जिन्हें पाने की खातिर रोज़ यहाँ बिकता हूँ मै !
सिखाया तो था तुने मुझे उठने का सलीका,
फिर यह कैसे सिले हैं, के खुद की नज़रों से ही गिरता हूँ मै !
वो ठहराव, यह रास्ता, वो मंजिल -यह क्या है ?
आना ही है तेरी महफ़िल में,तो यहाँ क्यों रुकता हूँ मै !
थोड़ी है के ज्यादा है,जितनी भी है बाकी,
आखरी दम तक तेरे लिए ही "रोहित" लिखता हूँ मै !
ज़िन्दगी इक कलम है और सिरे पे मौत भी है,
हर्फ़ से लफ्ज़ बन गया हूँ, अब देखिये किस रोज़ मिटता हूँ मै !!